भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिलों के फासले / रंजना भाटिया
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:09, 16 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना भाटिया |संग्रह= }} <poem>यूँ ही जाने -अनजाने महस...)
यूँ ही जाने -अनजाने
महसूस होता है
रिश्तों की गर्मी
शीत की तरह
जम गई है ...
न जाने कहाँ गई
वह मिल बैठ कर
खाने की बातें
वह सोंधी सी
तेरे-मेरे ....
घर की सब्ज़ी
रोटी की महक सी
मीठी मुस्कान ....
अब तो रिश्ते भी
शादी में सजे
बुफे सिस्टम से
सजे-सजाये दिखते हैं
प्यार के दो मीठे बोल भी
जमी आइस क्रीम की तरह
धीरे से असर करते हैं
कहने वाले कहते हैं
कि घट रही धीरे-धीरे
अब हर जगह की दूरी
पर क्या आपको नही लगता
कि दिलो के फासले अब
और महंगे ..
और बढ़ते जा रहे हैं?