भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पनघटों पर धूल / हरीश निगम

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:21, 18 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीश निगम }} <poem> गाँव अब लगते नहीं हैं गाँव से! पन...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गाँव अब
लगते नहीं हैं
गाँव से!

पनघटों में धूल
सूने खेत
घूमते अमराइयों में प्रेत,
आ रही लू, नीम वाली
छाँव से!

ठूँठ अपनापन झरे
मन-पात
कोयलों पर बाज की है घात,
धूप के हैं थरथराते
पाँव से!

खाँसते
आँगन हवा में टीस
कब्र में डूबे घुने आशीष,
लोग हैं हारे हुए हर
दाँव से।