भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गाँव का महाजन / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:47, 18 सितम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह समाज के त्रस्त क्षेत्र का मस्त महाजन,

गौरव के गोबर-गनेश-सा मारे आसन,

नारिकेल-से सिर पर बाँधे धर्म-मुरैठा,

ग्राम-बधूटी की गौरी-गोदी पर बैठा,

नागमुखी पैतृक सम्पति की थैली खोले,

जीभ निकाले, बात बनाता करूणा घोले,

ब्याज-स्तुति से बाँट रहा है रूपया-पैसा,

सदियों पहले से होता आया है ऐसा!!


सूड़ लपेटे है कर्जे की ग्रामीणों को,

मुक्ति अभी तक नहीं मिली है इन दीनों को,

इन दीनों के ऋण का रोकड़-कांड बड़ा है,

अब भी किन्तु अछूता शोषण-कांड पड़ा है।