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पोरस पड़ा घायल / सुधांशु उपाध्याय

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तुम्हें रक्खें कहाँ हम
किस तरह छोटे घरौंदे में,
नहीं आते-समाते तुम
किसी भी तय मसौदे में!

तुम्हें देखा किताबों में
तुम्हें पाया विचारों में
कि जैसे रंग पा जाता-
है जल रंगीन जारों में
कहीं घेरा अँधेरे का
कहीं पर साँप डँसते हैं
कहीं हैं झुंड तितली के
यहाँ सोये करौंदे में!

हमारी नींद मटमैली
मगर रंगीन साया है
तुम्हें छूकर के देखा है
तुम्हें छूकर के पाया है
कहीं पर धूप के दलदल
कहीं पर पाँव धँसते हैं
कहीं पोरस पड़ा घायल
किसी हाथी के हौदे में!

जलाकर लालटेनों को
नदी के पास आते हैं
हम अपने चाँद को ऐसे
यहाँ जल में छुपते हैं
कहीं पर भीगते पर हैं
कहीं आकाश कसते हैं
यहाँ शुभ-लाभ का पुट
इस तरह सोया है सौदे में?