इतनी छोटी बदरंग धरा
विश्वास नहीं होता।
सहमी-सहमी सी चिडि़या
दाना चुगती है
डैनों को भी फैलाने से
वह डरती है
अपनापन का तो कोई
अहसास नहीं होता।
किस्से आतंकों के
इधर-उधर फैले हैं
जिसको भी देखो
सबके दामन मैले हैं
वह निर्बंध भरोसा तो
अब पास नहीं होता।
चोंच नहीं खुलती नीड़ों में
जबसे मौन जड़े
मगर पसीना पहन सभी के
सपने हुए खड़े
झूठे वादों का जंगल
तो काश! नहीं होता।
अच्छी लगने लगी अभी से
आशा नयी फ़सल की
खाली आंखों में सजती है
खुशी सुनहरे कल की
फूलों की खुशबू को फिर
बनवास नहीं होता।