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संधिकाल / शशि पाधा
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सुबह की धूप ने अभी
ओस बूँद पी नहीं
आँख भोर की अभी
नींद से जगी नहीं
पंछियों की पाँत ने
नभ की राह ली नहीं
किरणों की डोरियाँ अभी
शाख से बँधी नहीं
शयामली अलक अभी
रात की बँधी नहीं
चाँद को निहारती
चातकी थकी नहीं
तारों की माल मे जली
दीपिका बुझी नहीं
हर शृंगार की कली
शाख से झरी नहीं
धरा को आँख में सजा
चाँद भी रुका-रुका
पुनर्मिलन की आस में
गगन भी झुका झुका
द्वार पर दिवस खड़ा
आँख रात की भरी
विरह और मिलन की
कैसी यह निर्मम घड़ी