भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ठनके की ठनक से / बाबू महेश नारायण
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:09, 18 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बाबू महेश नारायण }} {{KKCatKavita}} <poem> :::ठनके की ठनक से, :::ब...)
ठनके की ठनक से,
बिजली की चमक से,
वायु की लपक से,
फूलों की महक से,
वह वन में दीख पड़ता था अजाएब सा भयानक हुस्न।
झरने की बड़ बड़ाहट,
पत्तों की शनशनाहट,
कड़के की कड़कड़ाहट,
करती थीं हड़हड़ाहट,
लड़ती थी आपुस में ईश्वर की कीर्तियाँ सब।
थी उजाला ज़री न उस वन में,
थी अन्धेरी चमक वह कानन में,
थी ज़मीं मस्त काले जौबन में,
घोर रुपि निशा थी गुलशन में,
नहीं सूर्य देव उस धूप को कभी चमका सक्ते चमका सक्ते,
दामिनी दमके, चपला चमके नहीं इन्द्र उसे चमका सक्ते,
महिमा ईश्वर की प्रगट इससे
कहाँ पायेंगे हम, कहाँ पायेंगे हम।