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सफ़र / वेणु गोपाल

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सफर पे निकल तो पड़े हो।
लेकिन
थैले में सामान क्या-क्या रखा है?
अपना सूरज रखा है कि नहीं?
और हाँ, एक अदद यात्रा-संगीत भी?
पगडंडियाँ
कभी भी उस सूरज से रोशन नहीं होती
जो सबके सिरों पर चमकता है और
संगीत-हीन दूरियाँ
ताज़गी सोख लिया करती है और
मनमाने ढंग से
मनगढ़ंत थकानें लाद दिया करती हैं।
रात-बिरात सोने के लिए
एक गोद रख ली है कि नहीं? और हाँ
कुछ मीठे बोल भी?
अगर नहीं,
तो
राह में पड़ने वाले
झरने के किनारे
जब आराम करोगे तो आसमान से
सन्नाटे की अग्नि-बौछारें होंगी और
चुटकी भर राख भी नहीं बच पाएगी
तुम्हारी जगह।
और जिस्म में
गोश्त और खून और हड्डियों की बगल में
झाड़-झंझाड़ भर लिया है कि नहीं? वरना
पगडंडी पर पांव रखते ही
पानी की लकीर की तरह सूख जाओगे।
सफर पे निकल तो पड़े हो
लेकिन याद रखो
कि सफर के लिए
जितनी ज़रूरत पैरों की होती है,
उतनी ही इस तैयारी की भी
और
उतनी ही एक खूबसूरत मंज़िल की भी!
जो तुम्हारे पास रहे।
पहले से ही।
सफर पे निकल तो पड़े हो
मंज़िल को मुट्ठी में कस लिया है कि नहीं?