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71-80 मुक्तक / प्राण शर्मा

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                ७१
महजब के हर व्यापारी के घर लगवा दूँ ताला मैं
नफ़रत फैलाने वाले का मुख करवा दूँ काला मैं
किस्मत से यदि मैं बन जाऊँ अपनी नगरी का मुखिया
हर चौराहे पर खुलवा दूँ प्रेम भरी मधुशाला मैं
               ७२
हीन भावना जड़ से तेरे मन की दूर भगायेगा
सतरंगी मदमस्ती तेरे मन- मन में लहरायेगा
मन्दिर से ठुकराया है तू चिंता की कोई बात नहीं
साक़ी इतना दयाशील है तुझको खुद अपनायेगा
                 ७३
मदिरा की मस्ती में खोया मुझ जैसा जीने वाला
चाक जिगर के मदमस्ती में मुझ जैसा सीने वाला
दोस्त, भले ही न्यौता दे दे पीने का जग को लेकिन
कठिनाई से तुझे मिलेग मुझ जैसा पीने वाला
                  ७४
मयख़ाने में आते-जाते सब पर धाक बिठाता हूँ
मदिरा सब पीने वालों से लोहा निज मनवाता हूँ
मुझको मान बहुत है प्यारे अपने मदिरा पीने पर
पल ही पल में अनगिन प्याले अंधा-धुंध उड़ाता हूँ
                 ७५
मधुशाला में लाकर मुझको प्यासा ही क्या रक्खोगे
अपने पास बिठाकर मुझको प्यासा ही क्या रक्खोगे
कितनी और प्रतीक्षा मुझको करनी होगी ए साक़ी
मेरी प्यास बढ़ाकर मुझको प्यासा ही क्या रक्खोगे
                 ७६
रात दिवस सोचा करता था कैसा होगा मयख़ाना
कैसा होगा साक़ी, कैसा होगा मय और पैमाना
दुनिया के अनमोल रतन हैं साक़ी, मय और मयख़ाना
मैंने ये सब जाना प्यारे बनकर इन का मस्ताना
                ७७
साथ सदा तू देना उसका पीने में जो पक्का है
मस्ती की बातें करता है मधु के प्रति जो सच्चा है
साथ कभी मत देना उसका कहना है यह साक़ी का
मान नहीं जिसको मदिरा पर पीने में जो कच्चा है
                 ७८
तुझे कहीं न बहलाये वह चुपड़ी-चुपड़ी बातों से
या तुझको घायल ना कर दे उपदेशों के घातों से
पीकर मदिरा उसके आगे दोस्त न निकलाकर प्रतिदिन
छीन कहीं न ले उपदेशक बोतल तेरे हाथों से
                  ७९
दुनिया का अद्‌भुत हर जन है मन में कुछ और मुख में कुछ
लोगों का बस एक चलन है मन में कुछ और मुख में कुछ
ए साक़ी, एतबार करें अब इस युग में किस प्राणी पर
सबका दो रंगी जीवन है मन में कुछ और मुख में कुछ
                    ८०
यहीं मिलेगा तुझको अल्लाह यहीं मिलेग गुरु का दर
यहीं मिलेगा तुझको ईसा यहीं मिलेगा पैगम्बर
आँखें खोल ज़रा तू अपनी कहाँ भटकता है प्यारे
मयख़ाने से बढ़कर कोई और नहीं है रब का घर