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141-150 मुक्तक / प्राण शर्मा

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        १४१
मदिरा को पेश करे न करे
मानस की प्यास हरे न हरे
हर मद्यप इस में भी खुश है
मधुबाला पात्र भरे न भरे
        १४२
मस्ती के घन बरसाती जा
हर प्यासा मन सरसाती जा
पीने वालों का जमघट है
मधुबाले, मदिरा लाती जा
          १४३
ऐ दोस्त, तुम्हे बहला दूँगा
मदमस्ती से सहला दूँगा
मेरे घर में आ जाओ कभी
तुमको मधु से नहला दूँगा
          १४४
लाता जा प्याले पर प्याला
ऐ साक़ी, कर न अगर-मगर
अब बात न कर मदिरा के सिवा
मस्ती है तारी तन-मन पर
          १४५
सब को पीने को बोलेगा
जीवन में मधुरस घोलेगा
अपना विशवास अटल है यह
साक़ी मयखाना खोलेगा
          १४६
सब के आगे लहराता है
और हर इक को बहलाता है
कितना ही सुंदर लगता है
साक़ी जब मय बरसाता है
         १४७
कब मदिरा पीने देता है
कब घाव को सीने देता है
साक़ी, कब द्वेषों का मारा
उपदेशक जीने देता है
         १४८
इस से हर चिंता छूटी है
दुःख की हर बेडी टूटी है
मत कोस अरे जाहिद मदिरा
यह तो जीवन की बूटी है
          १४८
उपदेशक बन कर मतवाला
आया है पीने को हाला
ऐ साक़ी उसकी आमद पर
बरसा दे सारी मधुशाला
         १४९
वैभव और धन अर्पण कर दें
अपने तन-मन अर्पण कर दें
मदिरा की खातिर साक़ी को
आओ, जीवन अर्पण कर दें
         १५०
मुस्कराते हैं, लड़खड़ाते हैं
एक-दूजे को सब ही भाते हैं
मयकदे में हैं रौनक़ें इतनी
चार जाते हैं आठ आते हैं