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रागिनी बीन हो गई / श्रीकान्त जोशी

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प्रकृति पुरुष में लीन हो गई
स्वयं रागिनी बीन हो गई।

कैसी थी उद्दाम नर्तकी
घर-घर झूमी, दर-दर भटकी
जिधर दृष्टि फिर गई उधर ही
अजय पिपासा, तृष्णा भभकी
विश्व रीझ कर जिस पर रीता
वह ही जल बिन मीन हो गई।

बाँहों के दो कूल कि जिसमें
कैसी शांत हुई है धारा
मुक्त चंचला मुग्ध हो गई
पाकर भुजबंधों की कारा
कैसी थी बरज़ोर जवानी
अब वह कैसी दीन हो गई।

प्रकृति पुरुष में लीन हो गई
स्वयं रागिनी बीन हो गई।