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सड़क का गीत / सुदर्शन वशिष्ठ

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एक 'तिरछा मूल'

सड़क नहीं जाती कहीं
लोग जाते हैं
लोगों के चलने से सड़क है
सड़क से बनते हाट बाज़ार
उजड़ते टूटने से।

सड़कों से निकलती सड़कें
सड़कों से निकलती सड़कें
सड़कों से मिलती सड़कें
बनते दोराहे चौराहे
कोई अंत नहीं है।

सफर का अंत नहीं है
थक जाती सड़क इठलाती बतियाती
मुसाफिरों से
बेशक चलती नहीं सड़क।

दो

बहुत अपनी लगती सड़क
कोई निपट बेगानी
कोई भीड़ भरी भी सूनी
निपट अकेली गूँजती
यादों के कोलाहल से कोई।

मीलों सफर करते मुसाफिर
मुड़ मुड़ आते उसी सड़क पर
जो ले जाती घर आँगन द्वार।

तीन

एक सड़क बनती राजमार्ग
कोई बन जाती ऊबड़-खाबड़
होती कोई बिल्कुल नई कभी

एक सड़क जो धुलते बार बार
एक जो लगती नहीं सड़क
एक सड़क जंगल को जाती
एक सड़क संसद को जाती
एक सड़क जिस पर जाना है सबको
चाहे जितना घूमें फिरे

चार

बार बार हैं बनती सड़कें
बार बिग़ड़ती सड़कें
लम्बी मोटी छोटी सड़कें
कच्ची-पक्की काग़ज़ी सड़कें।

धन्य करती हर बरसात में
देह्स के लोग निर्माण विभाग को।

सड़क के मज़दूर
एक हथोड़ी चलाते थकते
भूल गए अपना पौरुष
भूल गए बाहों की ताकत
मरियल हो गई उनकी चाल
नहीं माना जाता अपना
सड़क और सरकार का काम।

पाँच

खतम नहीं हुआ सड़क का गीत
जैसे खतम नहीं होते सफ़र
सड़कें और भी हैं
सफर हैं अभी और।