कवि: रमानाथ अवस्थी
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मैं सदा बरसने वाला मेघ बनूँ
तुम कभी न बुझने वाली प्यास बनो।
संभव है बिना बुलाए तुम तक आऊँ
हो सकता है कुछ कहे बिना फिर जाऊँ
यों तो मैं सबको बहला ही लेता हूँ
लेकिन अपना परिचय कम ही देता हूँ।
मैं बनूँ तुम्हारे मन की सुन्दरता
तुम कभी न थकने वाली साँस बनो।
तुम मुझे उठाओ अगर कहीं गिर जाऊँ
कुछ कहो न जब मैं गीतों से घिर जाऊँ
तुम मुझे जगह दो नयनों में या मन में
पर जैसे भी हो पास रहो जीवन में ।
मैं अमृत बाँटने वाला मेघ बनूँ
तुम मुझे उठाने को आकाश बनो।
हो जहाँ स्वरों का अंत वहाँ मैं गाऊँ
हो जहाँ प्यार ही प्यार वहाँ बस जाऊँ
मैं खिलूँ वहाँ पर जहाँ मरण मुरझाये
मैं चलूँ वहाँ पर जहाँ जगत रुक जाये।
मैं जग में जीने का सामान बनूँ
तुम जीने वालों का इतिहास बनो।