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डूबता अवसाद में मन / हरिवंशराय बच्चन

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डूबता अवसाद में मन!

यह तिमिर से पीन सागर,
तल-तटों से हीन सागर,
किंतु हैं इनमें न धाराएँ, न लहरें औ’, न कम्पन!
डूबता अवसाद में मन!

मैं तरंगों से लड़ा हूँ,
और तगड़ा ही पड़ा हूँ,
पर नियति ने आज बाँधे हैं हृदय के साथ पाहन!
डूबता अवसाद में मन!

डूबता जाता निरंतर,
थाह तो पाता कहीं पर,
किंतु फिर-फिर डूब उतराते उठा है ऊब जीवन!
डूबता अवसाद में मन!