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ग़ाली नहीं है साहब / राजीव रंजन प्रसाद

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गाली नहीं है साहब

वह बच्चा
रो रो कर
खामोशी को गहराता था
टुकुर टुकुर आँखें तकती थी
माँ की क्षत-विक्षत छाती को
जिनसे रुधिर बहा आता था
एक नदी बनता जाता था

पत्थर की छाती फँटती थी,
आसमान सिर झुका खडा था,
और सायरन की आवाजें
जबरन रौंद रही क्रंदन को।
माँ उठो, माँ मुझे उठा लो,
डरा हुआ हूँ, सीने में दुबका लो
माँ भूख लगी है!!!....!!!!

पुकार पुकारों में दब सी गयी
बूटों की धप्प धप्प,
एम्बुलेंस,
खामोशी समेटती काली गाडी,
मीडिया, कैमरा...
आहिस्ता आहिस्ता बात अखबारों में दबती गयी
बडे कलेजे का शहर है
चूडियाँ पहने निकल पडता है
रोज की तरह....अगली सुबह

कोई नहीं जानता कि वह बच्चा,
पूरी पूरी रात नहीं सोता है
पूरे पूरे दिन रोता है
उफ!! कि अब उसका रोना शोर है
अब उसकी पुकार, चीख कही जाती है
उसका अब अपना बिस्तर है,
अपना ही तकिया है
अपना वह नाथ है/अनाथ है

वह सीख ही जायेगा जीना
महीने या साल में
हो जायेगा पतथर

वह बच्चा किसी के लिये सवाल नहीं
किसी की संवेदना का हिस्सा नहीं
किसी की दुखती रग पर रखा हाँथ नहीं
वह बच्चा एक आम घटना है
बकरे को कटना है
बम को फ़टना है
खैर मना कर क्या होगा?

बारूद सीने पर बाँध
निकल पडते हैं नपुन्सक, कमबख्त!
कचरे के ढेर में/ किसी बाजार/
अस्पताल या ईस्कूल में
फट पडेंगे ‘हरामखोर’....

गाली नहीं है साहब
अन्न इसी धरती का है
और धरती भी माँ है