अरे है वह अंतस्तल कहाँ?
अपने जीवन का शुभ-सुन्दर
बाँटा करता हूँ मैं घर-घर,
एक जगह ऐसी भी होती,
निःसंकोच विकार विकृति निज सब रख सकता जहाँ।
अरे है वह अंतस्तल कहाँ?
करते कितने सर-सरि-निर्झर
मुखरित मेरे आँसू का स्वर,
एक उदधि ऐसा भी होता,
होता गिरकर लीन सदा को नयनों का जल जहाँ।
अरे है वह अंतस्तल कहाँ?
जगती के विस्तृत कानन में
कहाँ नहीं भय औ’ किस क्षण में?
एक बिंदु ऐसा भी होता,
जहाँ पहुँचकर कह सकता मैं ’सदा सुरक्षित यहाँ’।
अरे है वह अंतस्तल कहाँ?