भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे सीने पर सर रक्खे हुए / बशीर बद्र

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:06, 1 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बशीर बद्र |संग्रह=उजाले अपनी यादों के / बशीर बद्...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे सीने पर वह सर रक्खे हुए सोता रहा
जाने क्या थी बात मैं जागा किया रोता रहा

वादियों में गाह उतरा और कभी पर्वत चढ़ा
बोझ सा इक दिल पे रक्खा था जिसे ढोता रहा

गाह पानी गाह शबनम और कभी ख़ूनाब से
एक ही था दाग़ सीने में जिसे धोता रहा

इक हवा ए बेताकां से आख़िरश मुरझा गया
जिंदगी भर जो मोहब्बत करके शजर बोता रहा

रोने वाले ने उठा रक्खा था घर सर पर मगर
उम्र भर का जागने वाला पड़ा सोता रहा

रात की पलकों पे तारों की तरह जागा किया
सुबह की आँखों में शबनम की तरह रोता रहा

रोशनी को रंग करके ले गए जिस रात लोग
कोई साया मेरे कमरे में छिपा रोता रहा