(१)
सृष्टा भी यह कहता होगा
हो अपनी कृति से असंतुष्ट,
यह पहले ही सा हुआ प्रलय,
यह पहले ही सी हुई सृष्टि।
(२)
इस बार किया था जब मैंने
अपनी अपूर्ण रचना का क्षय,
सब दोष हटा जग रचने का
मेरे मन में था दृढ़ निश्चय।
(३)
लेकिन, जब जग में गुण जागे,
तब संग-संग में दोष जगा,
जब पूण्य जगा, तब पाप जगा,
जब राग जगा, तब रोष जगा।
(४)
जब ज्ञान जगा, अज्ञान जगा,
पशु जागा, जब मानव जागा,
जब न्याय जगा, अन्याय जगा,
जब देव जगा, दानव जागा।
(५)
जग संघर्षों का क्षेत्र बना,
संग्राम छिड़ा, संहार बढ़ा,
कोई जीता, कोई हारा,
मरता-कटता संसार बढ़ा।
(६)
मेरी पिछ्ली रचनाओं का,
जैसे विकास औ’ हास हुआ,
इस मेरी नूतन रचना का
वैसा ही तो इतिहास हुआ।
(७)
यह मिट्टी की हठधर्मी है
जो फिर-फिर मुझको छलती है,
सौ बार मिटे, सौ बार बने
अपना गुण नहीं बदलती है।
(८)