मैं किसी की मूक छाया हूँ न क्यों पहचान पाता! / महादेवी वर्मा
मैं किसी की मूक छाया हूँ न क्यों पहचान पाता!
उमड़ता मेरे दृगों में बरसता घनश्याम में जो,
अधर में मेरे बिना नव इन्द्रधनु अभिराम में जो,
बोलता मुझ में वही मौन में जिसको बुलाता!
जो न होकर भी बना सीमा क्षितिज वह रिक्त हूँ मैं,
विरति में भी चिर विरति की बन गई अनुरक्ति हूँ मैं,
शून्यता में शून्य का अभिमान ही मुझको बनाता!
श्वास हैं पद-चाप प्रिय की प्राण में जब डोलती है,
मृत्यु है जब मूकता उसकी हृदय में बोलती है;
विरह क्या पद चूमने मेरे सदा संयोग आता!
नींद-सागर से सजनि! जो ढूँढ लाई स्वप्न मोती;
गूँथती हूँ हार उनका क्यों उनका क्यों प्रात रोती!
पहन कर उनको स्वजन मेरा कली को जा हँसाता?
प्राण में जो जल उठा वह और है दीपक चिरन्तन,
कर गया तम चाँदनी वह दूसरा विद्युत्-भरा धन;
दीप को तज कर मुझे कैसे शलभ पर प्यार आता?
तोड़ देता खीझकर जब तक न प्रिय यह मृदुल दर्पण,
देख ले उसके अधर सस्मित, सजल दृग अलख आनन्द;
आरसी-प्रतिबिम्ब का कब चिर हुआ जग स्नेह-नाता!