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झिलमिलाती रात मेरी! / महादेवी वर्मा

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झिलमिलाती रात मेरी!

साँझ के अन्तिम सुनहले
हास सी चुपचाप आकर,
मूक चितवन की विभा-
तेरी अचानक छू गई भर;

बन गई दीपावली तब आँसूओं की पाँत मेरी!

अश्रु घन के बन रहे स्मित
सुप्त वसुधा के अधर पर,
कंज में साकार होते
बीचियों के स्वप्न सुन्दर;

मुस्करा दी दामिनी में साँवली बरसात मेरी!

क्यों इसे अम्बर न निज
सूने हृदय में आज भर ले?
क्यों न यह जड़ में पुलक का,
प्राण का संचार कर ले?

है तुम्हारी श्वास के मधु-भार-मन्थर वात मेरी!