भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तम ने जीवन-तरु को घेरा / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:22, 3 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन |संग्रह=निशा निमन्त्रण / हरिवं...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तम ने जीवन-तरु को घेरा!

टूट गिरीं इच्छा की कलियाँ,
अभिलाषा की कच्ची फलियाँ,
शेष रहा जुगुनूँ की लौ में आशामय उजियाला मेरा!
तम ने जीवन-तरु को घेरा!

पल्लव मरमर गान कहाँ अब!
कोकिल पंचम तान कहाँ अब!
कौन गया निश्चय से सोने, देखेगा फिर जाग सवेरा!
तम ने जीवन-तरु को घेरा!

स्वप्नों ही ने मुझको लूटा
स्वप्नों का, हा, मोह न छूटा,
मेरे नीड़ नयन में आओ, करलो, प्रेयसि, रैन, सवेरा!
तम ने जीवन-तरु को घेरा!