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दिल्ली (कविता) / रामधारी सिंह "दिनकर"
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यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिस्र गगन में
कूक रही क्यों नियति व्यंगय से इस गोधूलि-लगन में ?
मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार? यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में!
इस उजाड़ निर्जर खंडहर में छिन्न भिन्न उजड़े इस घर मे
तुझे रूप सजाने की सूझी इस सत्यानाश प्रहर में!
डाल डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया-तराना, और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;
हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से, उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिड़काना !
महल कहां बस, हमें सहारा केवल फ़ूस-फ़ास, तॄणदल का;
अन्न नहीं, अवलम्ब प्राण का गम, आंसू या गंगाजल का;