भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रभाती / रघुवीर सहाय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:47, 4 अक्टूबर 2009 का अवतरण ("प्रभाती / रघुवीर सहाय" सुरक्षित कर दिया [edit=sysop:move=sysop])
आया प्रभात
चन्दा जग से कर चुका बात
गिन-गिन जिनको थी कटी किसी की दीर्घ रात
अनगिन किरणों की भीड़भाड़ से भूल गए
पथ, और खो गए, वे तारे।
अब स्वप्नलोक
के वे अविकल शीतल, अशोक
पल जो अब तक थे फैल-फैल कर रहे रोक
गतिवान समय की तेज़ चाल
अपने जीवन की क्षण-भंगुरता से हारे।
जागे जन-जन,
ज्योतिर्मय हो दिन का क्षण-क्षण
ओ स्वप्नप्रिये, उन्मीलित कर दे आलिंगन।
इस गरम सुबह, तपती दुपहर
में निकल पड़े।
श्रमजीवी, धरती के प्यारे।