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उड़ने दे घनश्याम गगन में / माखनलाल चतुर्वेदी

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उड़ने दे घनश्याम गगन में|

बिन हरियाली के माली पर
बिना राग फैली लाली पर
बिना वृक्ष ऊगी डाली पर
फूली नहीं समाती तन में
उड़ने दे धनश्याम गगन में!

स्मृति-पंखें फैला-फैला कर
सुख-दुख के झोंके खा-खाकर
ले अवसर उड़ान अकुलाकर
हुई मस्त दिलदार लगने में
उड़ने दे धनश्याम गगन में!

चमक रहीं कलियाँ चुन लूँगी
कलानाथ अपना कर लूँगी
एक बार ’पी कहाँ’ कहूँगी
देखूँगी अपने नैनन में
उड़ने दे धनश्याम गगन में!

नाचूँ जरा सनेह नदी में
मिलूँ महासागर के जी में
पागलनी के पागलपन ले--
तुझे गूँथ दूँ कृष्णार्पण में
उड़ने दे धनश्याम गगन में!