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दुर्गम हृदयारण्य दण्ड का / माखनलाल चतुर्वेदी

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दुर्गम हृदयारण्य दण्डका-
रण्य घूम जा आजा,
मति झिल्ली के भाव-बेर
हों जूठे, भोग लगा जा!

मार पाँच बटमार, साँवले
रह तू पंचवटी में,
छिने प्राण-प्रतिमा तेरी
भी, काली पर्ण-कुटी में।

अपने जी की जलन बुझाऊँ,
अपना-सा कर पाऊँ,
"वैदेही सुकुमारि कितै गई"
तेरे स्वर में गाऊँ।