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कुत्ता भौंकने लगा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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</poem> आज ठंडक अधिक है। बाहर ओले पड़ चुके हैं, एक हफ़्ता पहले पाला पड़ा था-- अरहर कुल की कुल मर चुकी थी, हवा हाड़ तक बेध जाती है, गेहूँ के पेड़ ऎंठे खड़े हैं, खेतीहरों में जान नहीं, मन मारे दरवाज़े कौड़े ताप रहे हैं एक दूसरे से गिरे गले बातें करते हुए, कुहरा छाया हुआ। उँपर से हवाबाज़ उड़ गया। ज़मीनदार का सिपाही लट्ठ कंधे पर डाले आया और लोगों की ओर देख कर कहा, 'डेरे पर थानेदार आए हैं; डिप्टी साहब नें चंदा लगाया है, एक हफ़्ते के अंदर देना है। चलो, बात दे आओ। कौड़े से कुछ हट कर लोगों के साथ कुत्ता खेतिहर का बैठा था, चलते सिपाही को देख कर खडा हुआ, और भौंकने लगा, करुणा से बंधु खेतिहर को देख-देख कर। </poem>