भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज पहली बार / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

Kavita Kosh से
Rajeevnhpc102 (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:36, 12 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>आज पहली बार थकी शीतल हवा नें शीश मेरा उठा कर चुपचाप अपनी गोद में …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज पहली बार
थकी शीतल हवा नें
शीश मेरा उठा कर
चुपचाप अपनी गोद में रक्खा,
और जलते हुए मस्तक पर
काँपता सा हाँथ रख कर कहा-

"सुनो, मैं भी पराजित हूँ
सुनों, मैं भी बहुत भटकी हूँ
सुनो, मेरा भी नहीं कोई
सुनो, मैं भी कहीं अटकी हूँ
पर न जाने क्यों
पराजय नें मुझे शीतल किया
और हर भटकाव नें गति दी


नहीं कोई था
इसी से सब हो गये मेरे
मैं स्वयं को बाँटती ही फिरी
किसी नें मुझको नहीं यति दी"

लगा मुझको उठा कर कोई खडा कर गया
और मेरे दर्द को मुझसे बड़ा कर गया।
आज पहली बार।