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आज पहली बार / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
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आज पहली बार
थकी शीतल हवा नें
शीश मेरा उठा कर
चुपचाप अपनी गोद में रक्खा,
और जलते हुए मस्तक पर
काँपता सा हाँथ रख कर कहा-
"सुनो, मैं भी पराजित हूँ
सुनों, मैं भी बहुत भटकी हूँ
सुनो, मेरा भी नहीं कोई
सुनो, मैं भी कहीं अटकी हूँ
पर न जाने क्यों
पराजय नें मुझे शीतल किया
और हर भटकाव नें गति दी
नहीं कोई था
इसी से सब हो गये मेरे
मैं स्वयं को बाँटती ही फिरी
किसी नें मुझको नहीं यति दी"
लगा मुझको उठा कर कोई खडा कर गया
और मेरे दर्द को मुझसे बड़ा कर गया।
आज पहली बार।