भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नाचे उस पर श्यामा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:24, 12 अक्टूबर 2009 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फूले फूल सुरभि-व्याकुल अलि
गूँज रहे हैं चारों ओर
जगतीतल में सकल देवता
भरते शशिमृदु-हँसी-हिलोर।

गन्ध-मन्द-गति मलय पवन है
खोल रही स्मृतियों के द्वार,
ललित-तरंग नदी-नद सरसी,
चल-शतदल पर भ्रमर-विहार।

दूर गुहा में निर्झरिणी की
तान-तरंगों का गुंजार,
स्वरमय किसलय-निलय विहंगों
के बजते सुहाग के तार।

तरुण-चितेरा अरुण बढा कर
स्वर्ण-तूलिका-कर सुकुमार
पट-पृथिवी पर रखता है जब,
कितने वर्णों का आभार।

धरा-अधर धारण करते हैं,--
रँग के रागों के आकार
देख देख भावुक-जन-मन में
जगते कितने भाव उदार!

गरज रहे हैं मेघ, अशनिका
गूँजा घोर निनाद-प्रमाद,
स्वर्गधराव्यापी संगर का
छाया विकट कटक-उन्माद

अन्धकार उदगीरण करता
अन्धकार घन-घोर अपार
महाप्रलय की वायु सुनाती
श्वासों में अगणित हुंकार

इस पर चमक रही है रक्तिम
विद्युज्ज्वाला बारम्बार
फेनिल लहरें गरज चाहतीं
करना गिर-शिखरों को पार,

भीम-घोष-गम्भीर, अतल धँस
टलमल करती धरा अधीर,
अनल निकलता छेद भूमितल,
चूर हो रहे अचल-शरीर।

हैं सुहावने मन्दिर कितने
नील-सलिल-सर-वीचि-विलास-
वलयित कुवलय, खेल खिलानी
मलय वनज-वन-यौवन-हास।

बढ़ा रहा है अंगूरों का
हृदय-रुधिर प्याले का प्यार,
फेन-शुभ्र-सिर उठे बुलबुले
मन्द-मन्द करते गुंजार।

बजती है श्रुति-पथ में वीणा,
तारों की कोमल झंकार
ताल-ताल पर चली बढ़ाती
ललित वासना का संसार।

भावों में क्या जाने कितना
व्रज का प्रकट प्रेम उच्छ्वास,
आँसू ढ्लते, विरह-ताप से
तप्त गोपिकाओं के श्वास;