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बेख़बर कुर्सियाँ आँख मलती रहीं / बशीर बद्र

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बेख़बर कुर्सियां आँख मलती रहीं
बस्तियाँ बेगुनाहों की जलती रहीं

आदमियत मोहब्बत शराफ़त वफ़ा
नागिनें आस्तीनों में पलती रहीं

दो बदन जितने नज़दीक होते गए
कुर्बतें फ़ासलों में बदलती रहीं

जब मिरी ज़िंदगी में अँधेरा हुआ
मेरे चारों तरफ़ शम्मे जलती रहीं

ज़हर पानी बना मछलियों के लिए
पंछियों को हवाएँ मसलती रहीं

ज़िंदगी तेरी नाज़ुक बदन लड़कियाँ
आग की शाहराहों पे चलती रहीं