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नयन नहाये / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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नयन नहाये
जब से उसकी छबि में रूप बहाये।
साथ छुटा स्वजनों की,
पाँख फिर गई,
चली हुई पहली वह
राह घिर गई,
उमड़ा उर चलने को
जिस पुर आये।
कण्ठ नये स्वर से क्या
फूटकर खुला!
बदल गई आँख, विश्व-
रूप वह धुला!
मिथ्या के भास सभी,
कहाँ समाये!