भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अरघान की फैल / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

Kavita Kosh से
अजय यादव (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:45, 19 अक्टूबर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अरघान की फैल,
मैली हुई मालिनी की मृदुल शैल।

लाले पड़े हैं,
हजारों जवानों कि जानों लड़े हैं;
कहीं चोट खाई कि कोसों बढ़े हैं,
उड़ी आसमाँ को खुरीधूल की गैल-
अरघान की फैल।

काटे कटी काटते ही रहे तो,
पड़े उम्रभर पाटते ही रहे तो,
अधूरी कथाओं,
करारी व्यथाओं,
फिरा दीं जबानें कि ज्यों बाल में बैल।