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मन था भी तो लगता था पराया है सखी / जाँ निसार अख़्तर

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मन था भी तो लगता था पराया है सखी
तन को तो समझती थी कि छाया है सकी

अब माँ जो बनी हूँ तो हुआ है महसूस
मैंने कहीं आज खुद को पाया है सखी