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अनमिल-अनमिल मिलते / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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अनमिल-अनमिल मिलते
प्राण, गीत तो खिलते।

उड़ती हैं छुट-छुटकर
आँखें मन के नभ पर
और किसी मणि के घर
झिलमिल सुख से हिलते।

किससे मैं कहूँ व्यथा--
अपनी जित-विजित कथा?
होगी भी अनन्यता
छन की लौ के झिलते?