Last modified on 24 अक्टूबर 2009, at 16:05

मोहिं प्रभु, तुमसों होड़ परी / सूरदास

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:05, 24 अक्टूबर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

राग देवगंधार

मोहिं प्रभु, तुमसों होड़ परी।
ना जानौं करिहौ जु कहा तुम, नागर नवल हरी॥
पतित समूहनि उद्धरिबै कों तुम अब जक पकरी।
मैं तो राजिवनैननि दुरि गयो पाप पहार दरी॥
एक अधार साधु संगति कौ, रचि पचि के संचरी।
भई न सोचि सोचि जिय राखी, अपनी धरनि धरी॥
मेरी मुकति बिचारत हौ प्रभु, पूंछत पहर घरी।
स्रम तैं तुम्हें पसीना ऐहैं, कत यह जकनि करी॥
सूरदास बिनती कहा बिनवै, दोषहिं देह भरी।
अपनो बिरद संभारहुगै तब, यामें सब निनुरी॥

भावार्थ :- `तुम सों होड़ परी' तुम्हारा नाम `पतितोद्धारक' है, पर मुझे इसका विश्वास नहीं। आज जांचने आया हूं, कि तुम कहां तक पतितों का उद्धार करते हो। तुमने उद्धार करने का हठ पकड़ रखा है, तो मैंने पाप करने का सत्याग्रह ठान रखा है। इस बाजी में देखना है कौन जीतता है। `मैं तो राजिव....दरी' तुम्हारे कमलदल जैसे नेत्रों की दृष्टि बचाकर मैं पाप-पहाड़ की गुफा में छिपकर बैठ गया हूं।

शब्दार्थ :- होड़ = बाजी। नागर = चतुर। जक =हठ। दरी =कन्दरा,गुफा। दुर गयो = छिप गया। अपनी धरनी = अपनी शक्ति भर। जकनि करी =हठ किया। निनुरी = निर्णय हो जाएगा।