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रे मन, राम सों करि हेत / सूरदास

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राग सारंग


रे मन, राम सों करि हेत।
हरिभजन की बारि करिलै, उबरै तेरो खेत॥
मन सुवा, तन पींजरा, तिहि मांझ राखौ चेत।
काल फिरत बिलार तनु धरि, अब धरी तिहिं लेत॥
सकल विषय-विकार तजि तू उतरि सागर-सेत।
सूर, भजु गोविन्द-गुन तू गुर बताये देत॥

भावार्थ :- यह जीवन क्षेत्र है, पर क्षणस्थायी है। इसकी यदि रखवाली करनी है, इसे सार्थक बनाना है, तो भगवान् का भजन किया कर। काल से मुक्ति पाने का हरि-भजन ही अमोघ उपाय है। काल किसी का लिहाज नहीं करता। विषयों से मोह हटाकर गोविन्द का गुण- गान करने से ही तू संसार-सागर पार कर सकेगा, अन्यथा नहीं।


शब्दार्थ :- हेत =प्रेम। वारि = कांटों का घेरा, जो पशुओं से बचाने के लिए खेत के चारों तरफ लगा दिया जाता है। उबरे तेरो खेत = तेरे जीवन-क्षेत्र की रक्षा हो जाय चेत =होशियार हो। सेत =सेतु, पुल।