एक फूल की चाह / सियाराम शरण गुप्त
ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर
मन्दिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे
पाकर समुदित रवि-कर-जाल।
परिक्रमा-सी कर मन्दिर की,
ऊपर से आकर झर झर,
वहाँ एक झरना झरता था
कल-कल मधुर गान कर-कर।
पुष्प-हार-सा जँचता था वह
मन्दिर के श्री चरणों में,
त्रुटि न दिखती थी भीतर भी
पूजा के उपकरणों में।
दीप-दूध से आमोदित था
मन्दिर का आंगन सारा;
गूँज रही थी भीतर-बाहर
मुखरित उत्सव की धारा।
भक्त-वृन्द मृदु-मधुर कण्ठ से
गाते थे सभक्ति मुद-मय -
"पतित-तारिणि पाप-हारिणी,
माता, तेरी जय-जय-जय!"
"पतित-तारिणी, तेरी जय-जय" -
मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
जानें किस बल से ढिकला!
माता, तू इतनी सुन्दर है,
नहीं जानता था मैं यह;
माँ के पास रोक बच्चों की,
कैसी विधी यह तू ही कह?
आज स्वयं अपने निदेश से
तूने मुझे बुलाया है;
तभी आज पापी अछूत यह
श्री-चरणों तक आया है।
मेरे दीप-फूल लेकर वे
अम्बा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा - बेटी को माँ के ये
पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।
सिंह पौर तक भी आंगन से
नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि - "कैसे
यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो, देखो भाग न जावे,
बना धूर्त यह है कैसा;
साफ-स्वच्छ परिधान किए है,
भले मानुषों जैसा!
पापी ने मन्दिर में घुसकर
किया अनर्थ बड़ा भारी;
कुलषित कर दी है मन्दिर की
चिरकालिक शुचिता सारी।"
ए, क्या मेरा कलुष बड़ा है
देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे
माता की महिमा से भी?
माँ के भक्त हुए तुम कैसे,
करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम
गौरव करते हो छोटा!
कुछ न सुना भक्तों ने, झट से
मुझे घेर कर पकड़ लिया;
मार-मार कर मुक्के-घूँसे
धम-से नीचे गिरा दिया!
मेरे हाथों से प्रसाद भी
बिखर गया हा! सब का सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक
कैसे पहुँच सके यह अब।
मैंने उनसे कहा - दण्ड दो
मुझे मार कर, ठुकरा कर,
बस, यह एक फूल कोई भी
दो बच्ची को ले जाकर।
न्यायालय ले गए मुझे वे
सात दिवस का दण्ड-विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे
देवी का महान अपमान!
मैंने स्वीकृत किया दण्ड वह
शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग, दोष का
क्या उत्तर देता; क्या कह?
सात रोज ही रहा जेल में
या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविस्श्रान्त बरसा करके भी
आँखें तनिक नहीं रीतीं।
कैदी कहते - "अरे मूर्ख, क्यों
ममता थी मन्दिर पर ही?
पास वहाँ मसजिद भी तो थी
दूर न था गिरजाघर भी।"
कैसे उनको समझाता मैं,
वहाँ गया था क्या सुख से;
देवी का प्रसाद चाहा था
बेटी ने अपने मुख से।
दण्ड भोग कर जब मैं छूटा,
पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई
भय-जर्जर तनु पंजर को।
पहले की-सी लेने मुझको
नहीं दौड़ कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा!
अबकी दी न दिखाई वह।
उसे देखने मरघट को ही
गया दौड़ता हुआ वहाँ -
मेरे परिचित बन्धु प्रथम ही
फूँक चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची
हुई राख की थी ढेरी!
अन्तिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हाय!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
तुझको दे न सका मैं हा!
वह प्रसाद देकर ही तुझको
जेल न जा सकता था क्या?
तनिक ठहर ही सब जन्मों के
दण्ड न पा सकता था क्या?
बेटी की छोटी इच्छा वह
कहीं पूर्ण मैं कर देता
तो क्या अरे दैव, त्रिभुवन का
सभी विभव मैं हर लेता?
यहीं चिता पर धर दूँगा मैं,
- कोई अरे सुनो, वर दो -
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही लाकर दो!
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