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पात्रता / अजित कुमार
Kavita Kosh से
क्या मैं तुमसे कहूँ कि
इन हाथों को देखो ?
छि:। इनमें तो रक्त लगा है
अनेक भ्रूण-हत्याओं का ।
कितना ही धोऊँ उसे, वह जैसे का तैसा है ।
नहीं, प्यार नहीं,
मुझसे घृणा करों ।
शायद उसीकी प्रतिक्रिया में,
अपने प्रति मेरी वितृष्णा
कुछ कम हो ।
सभी तो माँगते हैं अपना हक़-
कुरसी, वेतन, चपरासी
(शर्त मगर यह कि उसकी वर्दी हो लक़दक़)
हाय । कोई नहीं पाता ।
हक़ एक ऐसी चीज़ है,
जिसके मिलने में,
कुछ-न-कुछ कमी
रह ही जाती है—
मोटर, विदेश-यात्राएँ, प्रेमिकाएँ, सभापतित्व ।
मैंने कोई यत्न नहीं किया ।
परदे के पार एक हलकी-सी चीख़…
बस ।
प्राप्त हो गया
वह सब,
जिसका मैं पात्र था—
निर्वासन । निर्वासन ।
पूर्ण, अविभाज्य ।
उस पर
नितान्त मेरा
एकान्त मेरा
अधिकार
हुआ ।