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ये फूल नहीं. / अजित कुमार

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ये फूल नहीं ।
जलकर सारे नभ को भरती
झिलमिल-झिलमिल
धरती पर झरती द्रुत गति से
रंगीन फेन के गुच्छों-सी फुलझरियाँ हैं ।
पर नहीं । बुझी ये कहाँ ।
राख भी नहीं हुईं । …
अक्षय कोष गन्ध के
अक्षय कोष समेटे अपने में
खिलने को आतुर
झूम रही बालापन के सपने में
(चम्पे की ?) कलियाँ हैं ।
क्या हैं ? सचमुच क्या हैं ?
--यह ज्ञात नहीं ।
लेकिन धुँधला-धुँधला-सा एक नगर था,
उलझे-सँकरे घर थे ;
याद आ रहा मुझको
उसमें सीलनभरी,
उदास, अकेली ,
टेढी-मेढी गलियाँ हैं ।

ये फूल नहीं ।