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वे शब्द बजाते हैं / श्रीकान्त जोशी

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समझ में आता हूँ
भाषा की नक़ली सुबह के अन्धेरे में
यह ख़तरा उठाता हूँ
वे शब्द बजाते हैं
अर्थ की बाघनखी अंगुलियाँ
शब्द-ग्रीवा में धँसती हैं
धँसती चली जाती हैं ख़ून रिसने तक
नियुक्त जन तालियाँ बजाते हैं
और कर भी क्या सकते हैं नियुक्तियाँ सब ओर हैं
आदेशाक्रान्त भाषा अकड़ कर खड़ी होती है --
ताली बजाओ (तालियाँ तुरंत बजती हैं)
चिल्लाओ, जैसे ख़ुशी मिली हो
(सब ऐसा ही करते हैं पर कुछ की
हरकत रोने-जैसी हो जाती है)
समीक्षक! (अरे कोई है)
जी हुज़ूर
इधर आओ, इनकी अर्थहीनता का उत्सव मनाओ
ख़र्च की परवाह मत करो
सरकस से बेहतर होता है
यह अभ्यास-सिद्ध अनुपालन।
स-पारिश्रमिक तालियाँ बराबर बजती हैं
जगहें बदलती हैं पर ये नहीं बदलतीं
मैं बिरादरी से बाहर का आदमी
फेंक गए आदेशों पर
अपना चमरौधा रख कर खड़ा हूँ
शिखर की ठंडी, वहशी, निर्मूलक
दहशतभरी, बन्द
मुस्कराहट में कौंधती हुई जुगुप्सा से
निहत्था टकराता हूँ
भाषा की नक़ली सुबह के अन्धेरे में
यह ख़तरा उठाता हूँ
समझ में आता हूँ।