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आवाहन: नवागत को / श्रीकान्त जोशी

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मैंने यह कहा था, कहता भी रहूंगा
सीढ़ियों के न होने पर
शिखरयात्रा में असुविधा हो तो
मेरे मस्तक पर पैर रख कर बढ़ जाना
यह कब कहा था
इस्तेमाल की गई सीढ़ी की तरह
धकिया देना वंचना से?
तुमने देखा, चह मस्तक अडिग रहा
उम्र के बावजूद।
मेरा मस्तक मेरा आवाहन
केवल तुम्हारी शिखरयात्रा के लिए थोड़े ही था,
और भी यात्री हैं
प्रतिभा में अप्रतिम
पर वे अपने नमन मैले नहीं होने देते
जानते हैं
यह ठहर जाने वाला यात्री नहीं है
यह तो हर तरह से सहयात्री है
यह भी जानते हैं
यह सीढ़ी मात्र नहीं एक चुनौती भी है,
इसे छल से, पाखंड से नहीं
मस्तिष्क की और हृदय की शक्तियों से
परास्त किया जा सकता है।
यह आवाहन भी है
ओ नवागत! परास्त करो इसे
दलों के दलदल में मत उचकते रहो
यह यात्री अनवरत आवाहन है।