भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाल-बच्चे सयाने हुए / जहीर कुरैशी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:24, 2 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जहीर कुरैशी |संग्रह=समंदर ब्याहने आया नहीं है / …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाल बच्चे सयाने हुए
दिन-ब-दिन हम पुराने हुए

गाँव में तो ठिकाना भी था
शहर में बेठिकाने हुए

चाँदनी धूप में आ गई
बाल जब भी सुखाने हुए
 
राजनीतिज्ञ बुनते रहे
नागरिक ताने-बाने हुए

छत के नीचे भी बैठे हैं लोग
छतरियाँ अपनी थामे हुए