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कामना / सियाराम शरण गुप्त

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हाय! तुम्हारे क्रीड़ा-स्थल इस
मानस में हे हृदयाधार,
विपुल वासनाओं के पत्थर
फेंक रहे हम बारंबार।

उलटी हमें हानि ही होती,
यद्यपि इस अपनी कृति से
किंतु इसी में लगे हुए हैं
यथाशक्ति हम सभी प्रकार।

जो जल स्वच्छ और निर्मल था
पंकिल होता जाता है,
घटता ही जाता है प्रति पल
उसका वह गाम्भीर्य अपार।

छिपा हुआ है पद्मासन जो
यहीं तुम्हारे लिये कहीं,
उसके उपर चोट न आवे
यही विनय है करुणागार।