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क्रोध रोके रुका ही नहीं / जहीर कुरैशी
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क्रोध रोके रुका ही नहीं
मुठ्ठियों में बँधा ही नहीं
कैसे मंज़िल पे पहुँचेगा वो
आजतक जो चला ही नहीं
बाँटते-बाँटते कर्ण की
गाँठ में कुछ बचा ही नहीं
कितने सालों से घर में कोई
खिलखिलाकर हँसा ही नहीं
एड्स या कैंसर की तरह
शक की कोई दवा ही नहीं
जो लिपट न सकी पेड़ से
सच कहूँ वो लता ही नहीं
ऋण सभी पर रहा साँस का
मरते दम तक चुका ही नहीं