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स्मारक / अज्ञेय

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ओ बीच की पीढ़ी के लोगो,
तुम युवतर पीढ़ी से कहते हो:
तुम घृणा के धुन्ध में जनमे थे
तुम आज भी घृणा करो।
गली-गली, नुक्कड़-चौराहे
बचे खड़े खंडहरों
या कि युद्ध के बाद रचे स्मारक-स्तूपों को देख-देख
फिर याद करो
वह घृणा
धुन्ध
कालिमा—
वही घृणा फिर ह्रदय धरो!

पर जिस तुमसे पहले की पीढ़ी ने
उन्हें जना
क्या उन से, ओ बिचौलियो! यह पूछा था
वे क्या मरे घृणा में?
खंडहर होंगे ढूह घृणा के
और घृणा के स्मारक होंगे नए तुम्हारे थम्भ,
चौर, गुम्बद, मीनारें,
पर वे जो मरे
घृणा में नहीं, प्यार में मरे!
जिस मिट्टी को दाब रहे हैं ये स्मारक सदर्प,
चप्पा-चप्पा उस का, कनी-कनी साक्षी है
उस अनन्य एकान्त प्यार का
जो कि घृणा से उपजे हर संकट को काट गया!

तुम जो खुद उन के नाम के बल पर जीते हो,
क्या वह बल घृणा को ही देना चाहते हो—
उन के नाम का बल, उन का बल,
जिन्होंने अपने प्राण
घृणा को नहीं, प्यार को दिए,
स्मारकों को नहीं, मिट्टी को दिए,
मोल आँकनेवालों की नहीं, मूल्यों को दिए...

ये स्मारक—नए-पुरान ढूह—नहीं,
वह मिट्टी ही है पूज्य:
प्यार की मिट्टी
जिस से सरजन होता है
मूल्यों का
पीढ़ी-दर-पीढ़ी!

वोल्गोग्राद (स्तालिनग्राद)
जून १९६६