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ब्राह्म-मुहूर्त : स्वस्तिवाचन / अज्ञेय

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जियो उस प्यार में
जो मै नें तुम्हे दिया है,
उस दु:ख में नही जिसे
बेझिझक मैंने पिया है।

उस गान में जियो
जो मै नें तुम्हे सुनाया है
उस आह में नहीं जिसे
मैंने तुम से छुपाया है।

उस द्वार से गुज़रो
जो मैंने तुम्हारे लिये खोला है
उस अन्धकार से नहीं
जिस की गहराई को
बार-बार मैंने तुम्हारी रक्षा की
भावना से टटोला है।

वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूंगा;
वे काँटे-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ , चुनूंगा।

वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूँ, बनाता रहूंगा;
मैं जो रोड़ा हूँ, उसे हथोड़े से तोड़-तोड़
मैं जो कारीगर हूँ, करीने से
सँवारता-सजाता हूँ, सजाता रहूंगा।

सागर के किनारे तक
तुम्हें पहुँचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो:
फिर वहाँ जो लहर हो, तारा हो,
सोन-तरी हो, अरुण सवेरा हो,
वह सब, ओ मेरे वर्य!
तुम्हारा हो , तुम्हारा हो, तुम्हारा हो।

नई दिल्ली
६ अप्रैल १९५७