भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निश्चेष्ट पड़ा मेरा शरीर / अनामिका तिवारी

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:48, 4 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

निश्चेष्ट पड़ा मेरा शरीर,
सुषुप्त-सी आँखें देखती हैं
रोशनी में हरकत करते
दीवार पर कुछ कीड़े।

कुछ स्पन्दन होता है शरीर में,
होंठ हिलते हैं, कुछ शब्द बोलते हैं
स्पष्ट-अस्पष्ट...

हाथ भी हिल रहा है आहिस्ता-आहिस्ता,
कुछ सिहरन होती है, पैरों में भी,

शायद उम्मीद अभी बाक़ी है
मोहल्ले की गलियों में पतंग के पीछे दौड़ने की
या फिर अपने गन्दे हाथों को
माँ के आँचल में पोंछने पर
प्यार से झिड़कते हुए देखने की
माँ की उस हँसी को ।