Last modified on 4 नवम्बर 2009, at 21:52

मकड़ी के जाले / अनूप अशेष

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:52, 4 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मकड़ी के जाले हैं
बाँस की अटारी
सीने में बैठी है
भूख की कटारी।

माँ के घर बेटी है
दूर अभी गौना
चूल्हे में
आँच नहीं
खाट में बिछौना,
पिता तो किवाड़ हुए
सांकल महतारी।

खेतों से बीज गया
आँखों से भाई
घर का
कोना-कोना
झाँके महँगाई,
आसों का साल हुआ
सांप की पिटारी।

पीते घुमड़े बादल
देहों का पानी
मथती
छूँछी मटकी
लाज की मथानी,
बालों का तेल हुई
गाँव की उधारी।