बूढे पंखों का
सहारा ले
रंग
छिपे पहाडो तक
जा पहुचते
आप ही उत्त्पन
दिलासाओं के संग
सही - सही के
मायनों की दहलीजें
पार कर जाते हैं
हौले से ,
दौड़ते पानी की
रफ्तार माँप
काँच सी पोशाक
भिगो लेते
रंग
मांगे वाक्यों के
प्रतिबिम्बों में समाये
हाशियों को बिखेर ,
धकेलकर क्षितिज की देह
गहरे कोहरे को
मथने
कहीं और
निकल पड़ते ।
कुछ आहट
जरुर लगती है ।