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नज़्र-ए-अख़्तर-उल-ईमान / अली सरदार जाफ़री

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रही है क़श्तिए उम्रे-रवाँ आहिस्ता आहिस्ता
ख़यालो-ख़्वाब होगा ये जहाँ आहिस्ता आहिस्ता
जो उठता है दिलो-जाँ से धुआँ आहिस्ता आहिस्ता
बुझी जाती है कोई कहक्शाँ आहिस्ता आहिस्ता



नोटः मर्हूम अख़्तर-उल-ईमान ने अपनी बीमारी के ज़माने में एक नज़्म कही थी, जिसके आख़िरी दो मिस्रे ये थे:
बहे जाती है मेरी कश्तिए-उम्रे-रवाँ आहिस्ता आहिस्ता
ख़यालो-ख़्वाब होता जा रहा है ये जहाँ आहिस्ता आहिस्ता
मैंने इनको एक कत्‌अः में तब्दील कर दिया है।