अब नहीं छलता
कोई स्वर्ण मृग
किसी वनवासिनी सीता को
और
न की मूर्छित होता है
कोई राजकुमार
किसी अप्सरा के कटाक्ष से
घायल होकर
अब नहीं करता विचलित
किसी प्रवासी हंस का घाव
सिद्धार्थ को
हादसे अब हमें नहीं तोड़ते
और न ही करती है हैरान
अपनों की कृत्घन तिरछी आंख
स्वर्ण मृग का छल
मूर्च्छा की मरीचिका विचलित वैराग्य
और हादसों की टूटन को
अब हमने
अलविदा कह दी है।